Shri Madbhagwatgita-Moolkatha 2 Bhagon Mein

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गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः। या स्वयं पदमनाभस्य मुखपदमाद् विनिसृता।। यह सर्वमान्य है कि श्रीम्दभगवद्गीता भारतीय वाङ्मय का एक शिखर ग्रंथ है। वस्तुतः गीता ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय प्रदान करने वाली एक अनुपम कृति है। इसमें मानव मात्र की जटिल से जटिल समस्या का समाधान मिलता है। गीता मानव जाति के लिए मंगलमय पथ प्रशस्त करती है। इस महान् कृति की मूलकथा (ब्रह्मकथा) को यहाँ प्रामाणिक रूप में शब्द - बद्ध किया गया है। इसमें भगवान् (कृष्ण) के दिव्य धर्म का परिदृश्य जीवन्त हो उठा है। श्रीम्दभगवद्गीता में जन-जीवन का मंगलकारी ज्ञान संचित है जिसमें बुद्धि की प्रखरता, धर्म-कर्म, आचार-विचार के उत्कर्ष का मिश्रण अनुभव होता है जिसे अब तक अनेक विद्वानों और विचारकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। यहाँ गीता के जीवनोपयोगी उपदेशों को कथात्मक रूप में प्रस्तुत करने के सहज प्रयास के साथ इस बात का भी पूरा ध्यान रखा गया है कि “सर्व-धर्म-समभाव” के कथन का व्यावहारिक और ठोस आयाम भी उजागर हो सके। इसमें पिष्टपेषण से बचकर मौलिकता बनाए रखने का प्रशंसनीय प्रयास प्रतीत होता है। फलतः यह रचना अपनी अलग पहचान समर्पित करने में सक्षम है। भगवान् श्री कृष्ण के सार्वभौमिक और सार्वकालिक निष्काम काव्यमय उपदेशों को इसमें बडे़ रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार दो भागों में श्रीम्दभगवद्गीता की मूलकथा को अत्यंत सरल, सुबोध भाषा-शैली में प्रस्तुत कर भारतीय वाङ्ंमय की श्रंखला एक नई कड़ी जोड़ दी गयी है। अस्तु ! यह कृति जहाँ प्रबुद्ध-वर्ग के लिए उपयोगी सिद्ध होगी, वहीं शोधार्थियों, सुधी एवं साधारण पाठकों के लिए भी ज्ञानवर्द्धक होगी। विश्वास है, पाठकगण इस कृति के अनुशीलन से नवीनता का अनुभव करेंगे। वास्तव में किसी भी महान कृति के लिए उसकी पृथक्ता और प्रभावोत्पादकता उसकी अमर पहचान की धात्री होती है। इस कृति के रूप में इस धात्री को पाठकों के लिए सुलभ कराया गया है, निश्चित ही विश्व मानव समुदाय में यह कृति समादूत होगी। अंत में - सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्ष्यिष्यामि मा शुचः।। अनुक्रम प्रस्तावना (डाॅ. कर्ण सिंह) 9-11 आत्मकथ्य 13-32 गीता और उसका रचयिता 37-41 महाभारत के प्रमुख पात्र 43-62 श्रीम्दभगवद्गीता 63-64 पहला अध्याय: अर्जुन-विषादयोग 65 दूसरा अध्याय: सांख्ययोग (ज्ञानयोग) 91 तीसरा अध्याय: कर्मयोग 137 चैथा अध्याय: ज्ञानकर्म: सन्यासयोग 161 पाँचवाँ अध्याय: कर्म-सन्यासयोग अर्थात् कर्मयोग 191 छठा अध्याय: ध्यानयोग (आत्मसंयम योग) 209 सातवां अध्याय: ज्ञान-विज्ञान योग 235 आठवाँ अध्याय: अक्षर-ब्रह्म योग 251 नौवाँ अध्याय: राजविद्या (राजगुहय) योग 265 भाग-2 अनुक्रम प्रस्तावना (डाॅ. कर्ण सिंह) 9-11 आत्मकथ्य 13-32 दसवाँ अध्याय: विभूति योग 45 ग्यारहवाँ अध्याय: विश्वरूप: दर्शनयोग 65 बारहवाँ अध्याय: भक्तियोग 95 तेरहवाँ अध्याय: क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभागयोग 109 चैदहवाँ अध्याय: गुण-त्रय: विभागयोग 141 पन्द्रहवाँ अध्याय: पुरुषोत्तमयोग 165 सोलहवाँ अध्याय: देवासुर-संपद् विभागयोग 187 सत्रहवाँ अध्याय: श्रद्धा, त्रिविध आहार, त्रिविध यज्ञ, त्रिविध तप, 199 अठारहवाँ अध्याय: मोक्ष-संन्यासयोग (कर्तवययोग) 217 उपसंहार 251

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