आचार्य त्रिमल्लभट्ट द्वारा रचित ‘योगतंरगिणी’ आयुर्वेद आधारित एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ सर्व वैद्यक संहिताओं का सपाम संग्रह है। तत्कालीन सभी प्रामाणिक ग्रन्थों का उपयोग कर इसे संग्रह ग्रन्थ का रूप दिया गया है। इस ग्रन्थ में औषधि योगों का बृहत् संग्रह है। ये सभी औषधि योग विविध प्राचीन एवं तत्कालीन प्रचलित ग्रन्थों से संग्रहीत हर तरह के योग इसमें द्रष्टव्य हैं। महर्षि पतंजलि के अनुसार ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ अर्थात् चित्त की वृत्तियों को वश में रखना ही योग है। मनुष्य योग के द्वारा सभी चिन्ताओं का परित्याग कर सकता है। ‘योगतंरगिणी’ ग्रन्थ यद्यपि आयुर्वेद औषधि के उपचार का परिबोध कराता है, लेकिन भारतीय प्राचीन वाङ्मय में योग की जो पद्धतियाँ निरूपित हुई हैं, उसकी परिधि में इसे देखते हुए यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ आयुर्वेद औषधि के साथ योग के विराटत्व से विभूषित चिकित्सा प्रणाली का महाकाष है। आचार्य त्रिमल्लभट्ट ने प्राचीन काल में योगतंरगिणी की रचना की थी। यह ग्रन्थ उसी का नवीनतम संशोधित एवं सवंर्धित संस्करण है। प्रस्तुत ग्रन्थ भारतीय चिकित्सा-पद्धति को समृद्धि प्रदान करता है और आयुर्वेद की विकास-परम्परा को नवीनतम विधि-प्रक्रिया से विभूषित करता हुआ गौरवशाली बनाता है। सच ही कहा गया है, ‘योगःकर्मस्तु कौशलम्’ मसलन कार्य में कुशलता को ‘योग’ कहते हैं। इस कसौटी से पृथक यह ग्रन्थ भारतीय चिकित्सा-ज्ञान और उपचार-विज्ञान को एकमेव रूप में हर व्यक्ति के लिए दुःख भंजन मन्त्र-सा है। ग्रन्थ का अधुनातन परिवेश और इसके परिप्रेक्ष्य में जो चिकित्सीय-संज्ञानपरक क्रम बद्धता है, वह औषधिक उपाद्ेयता से परिसिक्त और परिनिष्ठ है।
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